नई दिल्ली। देश की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला अरावली एक बार फिर देश की राजनीति और पर्यावरणीय बहस के केंद्र में है। अरावली की परिभाषा, उसके संरक्षण और खनन गतिविधियों को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच टकराव तेज हो गया है। विपक्षी दल कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि सरकार अरावली की परिभाषा बदलकर उसे धीरे-धीरे कमजोर करने की दिशा में बढ़ रही है, जबकि सरकार इन आरोपों को सिरे से खारिज कर रही है।
विवाद की जड़ वह प्रस्ताव और नीतिगत बदलाव हैं, जिनमें अरावली क्षेत्र को परिभाषित करने के लिए 100 मीटर ऊंचाई का मानदंड अपनाने की बात सामने आई है। पर्यावरणविदों और सामाजिक संगठनों का कहना है कि यदि किसी पहाड़ी क्षेत्र को अरावली मानने के लिए न्यूनतम ऊंचाई तय की गई, तो कई ऐसे छोटे पहाड़ और टीले, जो अरावली की प्राकृतिक श्रृंखला का हिस्सा हैं, संरक्षण से बाहर हो जाएंगे।
कांग्रेस का कहना है कि इस परिभाषा में बदलाव से खनन कंपनियों और रियल एस्टेट लॉबी को सीधा फायदा मिलेगा। पार्टी नेताओं का दावा है कि यह कदम पर्यावरण संरक्षण की मूल भावना के खिलाफ है और इसके दूरगामी परिणाम होंगे। कांग्रेस ने इसे “अरावली को खत्म करने की साजिश” करार दिया है।
सड़क से संसद तक विरोध: अरावली मुद्दे पर सियासी बयानबाजी अब सड़कों तक पहुंच चुकी है। जयपुर, अलवर और आसपास के इलाकों में ‘अरावली बचाओ आंदोलन’ के तहत प्रदर्शन हुए हैं। छात्र संगठन NSUI, कांग्रेस कार्यकर्ता और पर्यावरण प्रेमी बड़ी संख्या में सड़कों पर उतरे और सरकार से अरावली के संरक्षण की मांग की।
प्रदर्शनकारियों का कहना है कि अरावली सिर्फ पहाड़ नहीं, बल्कि उत्तर भारत की पर्यावरणीय ढाल है। अगर इसे कमजोर किया गया, तो राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली-NCR में जल संकट, प्रदूषण और तापमान में और बढ़ोतरी होगी।
कांग्रेस ने इस मुद्दे को संसद में उठाने के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट तक ले जाने की रणनीति बनाई है। पार्टी नेताओं का कहना है कि अगर सरकार ने नीतियों में बदलाव नहीं किया, तो देशव्यापी आंदोलन किया जाएगा।
वहीं, राजस्थान सरकार ने विपक्ष के आरोपों को राजनीति से प्रेरित बताया है। मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने कहा कि उनकी सरकार अरावली के संरक्षण के प्रति पूरी तरह गंभीर है और अरावली से किसी भी तरह का समझौता नहीं किया जाएगा। उन्होंने पूर्ववर्ती सरकारों पर नियमों में ढील देने और अवैध खनन को बढ़ावा देने के आरोप लगाए।
सरकार का दावा है कि अरावली का बड़ा हिस्सा पहले से ही संरक्षित क्षेत्र में आता है और नई नीतियों का उद्देश्य संरक्षण को कमजोर करना नहीं, बल्कि नियमों को स्पष्ट और प्रभावी बनाना है। सरकार यह भी कहती है कि अवैध खनन के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जा रही है।
अरावली क्यों है जरूरी: पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार अरावली पर्वतमाला का महत्व केवल भूगोल तक सीमित नहीं है। यह पर्वतमाला थार मरुस्थल के विस्तार को रोकने, भूजल स्तर बनाए रखने और वायु प्रदूषण को कम करने में अहम भूमिका निभाती है। दिल्ली-NCR को प्रदूषण से बचाने में अरावली की भूमिका को लेकर कई अध्ययन सामने आ चुके हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि अरावली कमजोर होने का सीधा असर आम लोगों की जिंदगी पर पड़ेगा। जल स्रोत सूखेंगे, गर्मी बढ़ेगी और प्रदूषण का स्तर खतरनाक सीमा तक पहुंच सकता है। यही वजह है कि अरावली को लेकर उठे इस विवाद ने आम जनता को भी चिंतित कर दिया है।
मामला अब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुका है। याचिकाकर्ताओं ने अदालत में दलील दी है कि अरावली की परिभाषा में बदलाव से इसके मूल स्वरूप को नुकसान पहुंचेगा। कोर्ट ने इस पर केंद्र सरकार से जवाब मांगा है और संकेत दिए हैं कि पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे पर कोई भी ढील गंभीर परिणाम ला सकती है।
सामाजिक संगठनों का आरोप है कि सुप्रीम कोर्ट के पुराने आदेशों के बावजूद अरावली में अवैध खनन पूरी तरह नहीं रुका है। नियम कागजों पर सख्त हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर उनकी सख्ती पर सवाल उठते रहे हैं।
निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि अरावली को लेकर जारी यह बहस केवल राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप नहीं है। यह देश के पर्यावरण, जल सुरक्षा और आने वाली पीढ़ियों के भविष्य से जुड़ा सवाल है। अब देखना होगा कि सरकार, अदालत और समाज मिलकर ऐसा रास्ता निकाल पाते हैं या नहीं, जहां विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बना रहे और अरावली सुरक्षित रह सके।

