विश्व ऑटिज्म जागरूकता दिवस पर द होप फाउंडेशन के प्रबंध निदेशक से ख़ास बातचीत
लखनऊ: हर बच्चा अपने मां-बाप के लिए सबसे खूबसूरत और बेशकीमती इनायत है लेकिन उन मां-बाप का दर्द कोई नहीं समझ सकता, जिनकी ये खूबसूरत दुनिया किसी डिसऑर्डर का शिकार है। यहां बात हो रही है ऑटिज्म की। ऑटिज्म से ग्रसित बच्चे दुनिया से अलग तो हैं लेकिन बेहद स्पेशल हैं, क्योंकि इन्हें स्पेशल केयर के जरिए मेन स्ट्रीम में लाया जाता है। ऑटिज्म एक ऐसी बीमारी है, जिसके बारे में बेहद कम लोग जानते हैं लेकिन ये समस्या कई परिवारों की हकीकत बन चुकी है।
आकंड़ों पर नज़र डालें तो दुनियाभर में 6.18 करोड़ लोग ऑटिज्म के शिकार हैं। इनमें महिलाएं, पुरुष और बच्चे शामिल हैं। यानी धरती का हर 127वां इन्सान ऑटिस्टिक है। इस समस्या से पीड़ित लोग न तो दूसरों की बात ठीक से समझ पाते हैं और न ही स्वयं को अभिव्यक्त कर पाते हैं।
इसे ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (एएसडी) भी कहा जाता है। ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज 2021 पर आधारित अध्ययन में ये बातें सामने आईं हैं, जिसके नतीजे अंतरराष्ट्रीय जर्नल लैंसेट साइकियाट्री में प्रकाशित हुए हैं। हर साल 2 अप्रैल को ‘वर्ल्ड ऑटिज्म अवेयरनेस डे’यानी विश्व ऑटिज्म जागरूकता दिवस मनाया जाता है ताकि लोगों को ऑटिज्म के बारे में जागरूक किया जा सके और इसे लेकर समाज में जो भ्रांतियां हैं, उन्हें दूर किया जा सके।
इस दिन का मकसद साफ है – ऑटिज्म से पीड़ित लोगों को समझना, उन्हें सपोर्ट करना और उन्हें समाज में बराबरी का स्थान दिलाना। विश्व स्तर पर ऑटिज्म से जुड़े जागरूकता कार्यक्रम तो आयोजित होते ही हैं, लेकिन लखनऊ और इससे सटे हुए जिलों में इसको लेकर द होप फाउंडेशन द्वारा संचालित एवं प्रबंधित ‘द होप रिहैबिलिटेशन एंड लर्निंग सेंटर’ अपने स्तर पर कई कार्यों में लगा हुआ है।
विश्व ऑटिज्म जागरूकता दिवस के ख़ास मौके पर दिव्यांशु कुमार (प्रबंध निदेशक, द होप फाउंडेशन) से ऑटिज्म से जुड़े तमाम पहलुओं पर ख़ास बातचीत की, पढ़िए कुछ अंश…
सवाल: द होप रिहैबिलिटेशन एंड लर्निंग सेंटर ऑटिज्म से पीड़ित बच्चों व उनके अभिभावकों के लिए कैसे रोशनी की एक किरण साबित हो रहे हैं?
जवाब: साल 2023 में हमने द होप फाउंडेशन द्वारा संचालित एवं प्रबंधित ‘द होप रिहैबिलिटेशन एंड लर्निंग सेंटर’ की नींव रखी। इन तीन सालों में ऑटिज्म और अटेंशन डेफ़िसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (एडीएचडी) जैसे न्यूरोडेवलपमेंटल डिसऑर्डर से जुड़े कई मरीजों को थेरेपी के माध्यम से मेन स्ट्रीम में लाने की कोशिश की गई।
इन तीन सालों में 40 ऑटिस्टिक बच्चों को मेन स्ट्रीम में भेजने की सफलता मिली है। हालांकि, हमारी टीम इस आंकड़े को बढ़ाने के लिए लगातार प्रयासरत है। जो 40 बच्चे मेन स्ट्रीम में पहुंच चुके हैं, उनका परफॉरमेंस माइल्स स्टोन अचीव कर रहा है। दरअसल, ये बच्चे यूं ही नहीं स्पेशल कहलाते हैं, इनके अन्दर खूबियां होती हैं, हमारी कोशिशें रहती हैं कि इन खूबियों को उजागर करें जिससे इन स्पेशल बच्चों का वर्तमान और भविष्य संवरे।
सवाल: आपका सेंटर स्पेशल बच्चों के लिए क्या स्पेशल करता है?
जवाब: हमारे सेंटर की यूएसपी स्पेशल प्रोफेशनल ओरिएंटेड प्रोग्राम है। आसान भाषा में समझें तो स्पीच थेरेपी सिर्फ स्पीच थेरेपिस्ट कराएगा, ओकुपेशनल थेरेपी ओकुपेशनल थेरेपिस्ट कराएगा। यानी जो जिस विधा का एक्सपर्ट है, वो वही काम करेगा। इसके साथ-साथ सेशन की फीस भी बहुत ज्यादा हाई नहीं है, एफोर्डेबल रेट्स के तहत हमारे यहां सेशंस उपलब्ध हैं। हमारे सेंटर पर अभिभावकों की भी ट्रेनिंग होती है। सेशंस के दौरान बच्चा और उनके अभिभावक, दोनों ही मौजूद रहते हैं। इसका फायदा यह होता है कि अगर कभी भविष्य में किसी कारणवश कोई लक्षण उभरता है तो पेरेंट्स के पास उसको कुछ हद तक कण्ट्रोल करने का मौका रहता है।
सवाल: आपके सेंटर में बच्चों के साथ-साथ उनके अभिभावकों की भी काउंसलिंग होती है, ऐसा क्यों?
जवाब: देखिए, आज ये कॉमन टर्म हो गया है लेकिन इससे पहले ये एक तरह का बिलकुल नया डिसऑर्डर था। इसके बारे में जागरूकता की बहुत ज्यादा कमी थी। संयुक्त राष्ट्र महासभा को इस डिसऑर्डर के प्रति जागरूकता कार्यक्रम करने पड़े, इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ये कितना खतरनाक है। हाल के कुछ सालों में ऑटिज्म के प्रति जागरूकता और स्वीकार्यता बढ़ी है।
स्वास्थ के व्यवसाय के लोगों के अलावा, कई शोधकार्यों ने भी इस क्षेत्र में काफी नई खोजों के साथ जागरूकता बढ़ाने का काम किया है। अभिभावकों की काउंसलिंग इसलिए जरूरी हो जाती है क्योंकि उनके अन्दर भी अवसाद बढ़ जाता है। उन्हें समझाना और बताना जरूरी है कि ऑटिज्म डिसऑर्डर से बच्चा थेरेपी के माध्यम से उभर सकता है। सही गाइडेंस, देख-रेख और रेगुलर थेरेपी की मदद से ऑटिस्टिक बच्चा भी मेन स्ट्रीम में शामिल होकर अपना भविष्य बना सकता है। इसलिए हम पेरेंट्स की काउंसलिंग करते हैं।
सवाल: इन बच्चों को स्पेशल क्यों कहा जाता है, इनकी एबिलिटी क्या होती है?
जवाब: दरअसल, हमें बनाने वाला (इश्वर) कुछ न कुछ खासियत देकर धरती पर भेजता है। इन बच्चों की ऑब्जरवेशन पॉवर बहुत ज्यादा मज़बूत होती है। डिसऑर्डर से उभरने के बाद भी इन बच्चों की ऑब्जरवेशन पॉवर बरक़रार रहती है। यही कारण है कि दुनिया भर में ये अपनी छाप छोड़ते चले आ रहे हैं। टेम्पल ग्रैंडिन (वैज्ञानिक और लेखक), एलन मस्क (टेस्ला और स्पेसएक्स के सीईओ), माइकल फेल्प्स (ओलंपिक चैंपियन तैराक), बिल गेट्स (माइक्रोसॉफ्ट के सह–संस्थापक), मार्क जुकरबर्ग (फेसबुक के सह–संस्थापक) आदि, यह सब आज अपने-अपने क्षेत्र के दिग्गज हैं।
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सवाल: पिछले तीन साल का सफ़र कैसा रहा, आने वाले तीन सालों के लिए क्या लक्ष्य सेट किया है?
जवाब: बीते हुए तीन साल उतार चढ़ाव से भरपूर रहे। बच्चों और उनके अभिभावकों के साथ इमोशनली जुड़ाव रहा, आगे भी रहेगा। जब नतीजे अच्छे आने लगे, रिकवरी की दरें बढ़ीं तो ख़ुशी के आंसू आंखों में आए।
जब बच्चा रिकवर नहीं कर पाया तो उसके पेरेंट्स का चेहरा देख कर भी आंखों में आंसू आये। ऐसे कई मजबूर पेरेंट्स हमारे पास आते हैं जिनके लिए हम कुछ कर नहीं पाते, जिसकी वजह होती है साधन-संसाधनों की कमी। आने वाले सालों के लिए हमारा पहला टारगेट यही है कि हम संसाधनों की कमियों को पूरा करें। साथ ही हमारा यह लक्ष्य है कि ऑटिज्म से जुड़ी हर एक जानकारी समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति तक पहुंचाई जाए, जिससे इस डिसऑर्डर से जुड़ी भ्रांतियों से लोग डरे नहीं, बल्कि इसका इलाज कराने लोग खुद आएं।
हमारा यह भी लक्ष्य है कि लखनऊ के हर कोने में हम अपना सेंटर स्थापित कर सकें, जिससे अभिभावकों के ट्रैवलिंग टाइम को कम किया जा सके। साथ ही हम एक ऐसा स्कूल संचालित करने के प्रयासों में लगे हैं, जिसमें पढ़ाई के साथ-साथ को-करिकुलर एक्टिविटी पर ज्यादा से ज्यादा फोकस किया जाए। उनकी खूबियों को तराशा जाए।
स्पेशल बच्चों के लिए हम स्कूल रेडीनेस प्रोग्राम भी शुरू करने जा रहे हैं, जिसकी मदद से हम स्पेशल बच्चों में स्कूलिंग की आदतों को डेवेलप कर सकें। हमारा प्रयास यह भी कि ‘द होप रिहैबिलिटेशन एंड लर्निंग सेंटर’ के साथ-साथ जितने भी ऐसे सेंटर्स लखनऊ में संचालित हो रहे हैं, उनको सरकार मॉनिटर करे। स्पेशल बच्चों के पेरेंट्स को कागजी कार्यवाही के लिए दर-दर भटकना पड़ता है।
उनकी दौड़ कम हो सके, इसके लिए हम लगातार प्रयासरत हैं। हमारी कोशिश है कि अच्छे सेंटर्स पर यूआईडी के सरकारी कैंप लगाये जाएं, जिससे एक ही छत के नीचे स्पेशल बच्चों के सभी कागजी कार्य संपन्न हो सकें।
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